बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

संसार , प्रेम , भक्ति और भगवान्

संसार , सच  कहिये  तो  दुःखोंका  घर  है।  जन्म -मरण के  महादुःखके  बीचमे  घूमनेवाले  इस संसार मे  जो भी  आया  वह  दुःखोंका  मेहमान  हुआ। 

संसार  दुःख  स्वरुप  है , यही तो  शास्त्रका  सिद्धान्त  हे  और  यही  जीवमात्रका  अन्तिम  अनुभव है। 

भगवत्संकल्पके  अनुसार  ही  सृष्टिके  सब  व्यापार  हुआ  करते है।  सामान्य  जीव  सांसारिक  दुःखोंकी  चक्रमे  पीस   जाते है , पर वे  ही  दुःख  भाग्यवान्  पुरुषोंके  उद्धारका  कारण बनते  हैं। 

सच्चा  प्रेम  कभी मरता  नहीं , काल भी  उसे  मार नहीं  सकता। 

प्रेम तो  निष्काम -निर्विषय  ही होता है  और उसका  एकमात्र  भाजन  परमात्मा  है।  ऐसा  प्रेम  भक्तोंके  ही  भाग्यमें होता है। 

भक्तोमे  सच्चाई  होती है।  वैराग्य  के  अंजनमे  जब  आँखें  खुल  जाती है , तब  नश्वर  संसार के  भेद -भावोमे  बंटे  हुए  प्रेमको  एक जगह  बटोरकर  वे  एक  परमात्मा को  अर्पण  कर देते  है।  फिर  प्रेमामृतकी  धारा  भगवान के सम्मुख ही  प्रबाहित होने लगती  हे। 

सबके  परम सुहृद  प्रभु  जो कुछ  करते हैं , उसीमे हमारा  परम हित  है। 

भगवान्  भक्तको  गृहप्रपंच  करने ही  नहीं देते।  सब झंझटोंसे  अलग रखते  है। 

बहुत  मारा -मारा  फिरा।  लूट  गया।  तड़पते ही दिन  बिट रहे  है।  हे दीनानाथ ! संसारमें  विरद  रखो। 

निःसार  है  यह  संसार। यहाँ  सर केवल  भगवान है। 


संसार  काळग्रस्त , नश्वर  और दुःख स्वरुप  है।  इसका  सारा  घटाटोप  व्यर्थ  है।  भगवान्  मिले  तो  ही  जन्म सफल  है। 

यह  सब  नाशवान  है , गोपालकों  स्मरण कर , वही हित है। 

सुख  देखिये तो  राई -बराबर  है  और  दुःख  पर्वत  के  बराबर। 

यह संसार  दुःखसे  बंधा  है , इसमें  सुखका  विचार  तो  कहीं भी  नहीं है। 

देह  नाशवान  है।  देह  मृत्युकी  धौकनी  है।  संसार  केवल  दुःख स्वरुप है।  सब भाई -बंधू  सुखके साथी है। 

संसार मिथ्या  है --यह  ज्ञात  हुआ  और आँखे  खुली।  दुःख में  आँखे खुलती है , तब  दुःख  ही अनुग्रह  जान  पड़ता  है। 

खटमलभरी  खाटपर  मीठी निंदका  लगना  जैसे  असंभव  है , वैसे  ही  अनित्य  संसारके  भरोसे  सुख  मिलना  भी असंभव है। 

विरक्तिके बिना  ज्ञान  नहीं ठहर  सकता।  देह्सहित  सम्पूर्ण  दृश्यमान  संसारके  नश्वरत्वकी  मुद्रा  जबतक चित्तपर  अंकित नहीं हो जाती , तबतक  वहाँ  ज्ञान नहीं  ठहर  सकता। 

यह  समस्त  संसार  अनित्य है , इस अनित्यताको  जहाँ  जान लिया  तहाँ  वैराग्य  हाथ धोकर  पीछे पद जाता है।  ऐसा  दृढ़तर  वैराग्य  उत्पन्न  होना  ही  तो  भगवान् की  दया  है। 

वैराग्य  खेल नहीं , भगवान की  दया हो तो  ही उसका  लाभ  होता है। 

भगवान जिस पर  अनुग्रह  करना  चाहते है , उसे वे पहले  वैराग्य दान करते है। 

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

भगवान् -भक्त के सम्बन्ध माता और पुत्र के सम्बन्ध के सामान

संतोंकी  मामूली  बातें  महान उपदेश  होती है।  चित्त में  पड़ी हुई  गांठ  उनके  शब्दमात्रसे  छिद  जाती है। इसीलिए  बुध्हिमानोंको  चाहिए की सत्संग  करें।  सत्संगमें  साधकोंकी  भवपाश  काट जाते है। 

हृदयमे  प्रभुका  नित्य ध्यान  हो , मुखसे  उनका  नामकीर्तन  हो , कानोंमे  सदा  उनकी  ही कथा  गूंजती हो , प्रेमानन्दमे  उनकी ही  पूजा  हो , नेत्रोंमे  हरिकी  मूर्ति विराज रही हो , चरणोंसे उनके ही स्थानकी यात्रा  हो , रासनामे  प्रभुके तीर्थ  का  रस  हो , भोजन  हो तो  वह प्रभुका प्रसाद ही  हो।  साष्टांग  नमन  हो उनके प्रति , आलिंगन  हो  अह्लादसे  उनके ही भक्तोंका  और  एक क्या आधा  पल  भी  उनकी  सेवाके बिना व्यर्थ  न जाए।  सब  धर्मोमे  यही श्रेष्ठ  धर्म है। 

बछड़ेपर  गौका  जो  भाव  होता है , उसी भावसे  हरी  मुझे  संभाले  हुए  है। 

बच्चे  अनेक  प्रकारकी  बोलिओंसे  माताको  पुकारते हैं , पर उन  बोलिओं का  यथातथ्य  ज्ञान  माताको ही होता है। 

संतोने  मर्मकी  बात  खोलकर बता  दी है  --हाथमे  झांज --मंजीरा  ले  लो  और  नाचो।  समाधिके  सुखको  इसपर  न्योछावर  कर दो।  ऐसा  ब्रह्मरस  इस नाम -संकीर्तन में  भरा हुआ  है। 

यह  समझ  लो  की  चारों  मुक्तियाँ  हरिदासोंकी दासियाँ है। 

सदा -सर्वदा  नाम --संकीर्तन  और  हरिकथा  गान  होनेसे  चित्तमे  अखण्ड  आनन्द  बना रहता है।  सम्पूर्ण  सुख  और  श्रृंगार  इसीमे मैंने  पा  लिया और  अब  आनन्दमे  झूम रहा हूँ।  अब  कहीं  कोई  कमी  ही  नहीं रहीं।  इसी देहमे  विदेहका  आनन्द  ले  रहा हूँ। 

नाम का  अखण्ड प्रेम -प्रवाह  चला है।  राम -कृष्ण , नारायण -नाम  अखण्ड  जीवन  है , कहींसे  भी  खण्डित  होनेवाला  नहीं। 

वह  कुल  पवित्र है , वह  देश  पवन है , जहाँ  हरिके  दास  जन्म लेते हैं। 

बाल -बच्चोंकी  लिए  जमीन -जायदाद  रख  जानेवाले  माँ -बाप  क्या  काम है ? दुर्लभ हैं  वे  ही  जो  अपनी  सन्ततिके  लिए  भगवद्भक्तिकी   सम्पति छोड़ जाते हैं । 

भगवान् की  यह पहचान  है की  जिसके  घर आते  है उसकी  घोर  विपत्तिमें  भी सुख  सौभाग्य  दिखाई  देता है। 

मातासे  बच्चेको यह  नहीं  कहना पड़ता  की तुम  मुझे  सम्भालो।  माता तो स्वभावसे ही उसे अपनी  छाती से  लगाए  रहती है।  इसीलिए  में  भी  सोच-विचार क्यों करूँ? जिसके  शिर  जो भार  है  वाही संभाले। 

बिना मांगे  ही  माँ  बच्चेको  खिलाती  है  और  बच्चा  जितना  भी  खाय  खिलनेसे  माता  कभी नहीं  अघाती।  खेल  खेलने में  बच्चा  भुला  रहे  तो  भी  माता  उसे  नहीं  भुलाती , बरकस  पकड़कर  उसे छाती से   चिपका  लेती  और  स्तनपान  कराती है।  बच्चेको कोई  पीड़ा हो तो  माता भाड़की  लईके  समान  बिकल  हो  उठती है। 

प्रभुका  स्नेह  माताके  स्नेहसे  भी  बढ़कर  है , फिर  सोच -विचार  क्यों करूँ ? जिसके  सिर  जो भर है  वही जाने। 

बच्चेको  उठाकर  छातीसे  लगालेना  ही  माताका  सबसे  बड़ा  सुख है।  माता उसके हाथमे  गुड़िया  देती  और  उसके कौतुक  देख  अपने  जिको  ठंडा  करती है।  उसे  आभूषण  पहनाती  और उसकी  शोभा  देख परम प्रसन्न  होती  है।  उसे अपनी  गोदमे  उठा  लेती और टकटकी लगाये  उसका  मुँह  निहारती  है।  माता  बच्चेका  रोना  सह नहीं सकती। 

मातृस्तन्मे  मुह  लगाते  ही  माताके  दूध  भर  आता है।  माँ बच्चे दोनों  लाड लड़ाते  हुए  एक  दूसरे की  इच्छा  पूरी  करते  हैं, पर  सारा  भार  है  माता के सिर। 

माताके  चित्तमे  बालक  ही भरा  रहता है।  उसे  अपनी  देहकी  सुध  नहीं  रहती।  बच्चेको  जहाँ  उसने उठा लिया वहीँ  सारी  थकावट  उसकी  दूर  हो जाती है। 

बच्चेकी  अटपटी बातें  माताको  अच्छी लगती  है।  इसी प्रकार  भगवान का  जो प्रेमी  है , उसका  सभी कुछ  भगवान्  को  प्यार  लगता  है  और  भगवान्  उसकी  सब  मनःकामनाएं  पूर्ण  करते है। 

गाय  जंगलमे  चरने  जाती है , पर  चित्त उसका  गोठमे  बंधे  बछड़ेपर ही रहता  है। मैया  मेरी ! मुझे  भी ऐसा  ही बना ले ,अपने  चरणो में  स्थान  देकर  रख ले। 

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

भक्त, भगवान और नाम

शम -दम  आज्ञाकारी  सेवक  होकर  सेवक  होकर  भक्तके  द्वारपर  हाथ  जोड़े  खड़े  रहते  है।  ऋद्धि -सिद्धि  दासी  बनकर  घरमे  काम करती है।  विवेक  टहलुआ  सदा  हाजिर  ही रहता है। 
भक्तके  प्रत्येक  शवदसे  प्रभुकी  ही  वार्ता  उठती है  और श्रोता  सुनकर  तल्लीन हो जाता  है। 

चारो  मुक्ति  मिलकर  भक्तके घर  पानी भरती है  और  श्रीके  साथ श्रीहरि  भी  उसकी   सेवामे  रहते है ---औरोकी बात  ही क्या  है ?

भक्त  भगवानकी  आत्मा  हे , वह  भगवानका  जीवन है  प्राण  है। 

प्रभु  पूर्णतः  भक्तके  अंदर  है  और  भक्त  पूर्णतः  भगवानके  अंदर  है। 

साधनोमे  मुख्य  साधन  श्रीहरिकी  भक्ति ही है।  भक्तिमें  भी  नाम  कीर्तन  विशेष है --नामसे चित  शुद्धि  होती  है --साधकोंकी  चित्त - शुद्धि  होती है --साधकोंकी  स्वरुप -स्थिति  प्राप्त  होती है। 

नाम --जैसा और  कोई  साधन  नहीं  है।  नामसे  भव -बंधन  कट  जाते हैं। 

मन ने  सबको  बाँध  रखा  है।  मनको  बाँधना  आसान  नहीं।  मनने  देवताओंको  पस्त  कर  डाला।  वह  इन्द्रिओंको  क्या  समझता  है। मनकी  भार  बड़ी  जबरदस्त  है।  मनके  सामने  कौन  ठहर  सकता  है। 

हरिसे  हिरा  काटा  जाता है।  वैसे  ही  मनसे  मन  पकड़ा  जाता  है , पर  यह  भी  तब  होता है जब  पूर्ण  हरी कृपा  होता  है।

मन  ही  मनका  बोधक , मन  ही मनका  साधक , मन ही मनका  बाधक  और मन ही मनका घातक है।

अष्टांगयोग , वेदाध्ययन , सत्यवचन  तथा  अन्य  जो -जो  साधन है , उन सधोनो  से  जो कुछ  मिलता  है  वह  सब  भगवत्भजनसे  प्राप्त  होता है।

निरपेक्ष  ही धीर  होता है।  धैर्य उसके  चरण  छूटा है।  जो अधीर है  उससे  निरपेक्षता  नहीं होती।

कोटि -कोटि  जन्मोंकी  अनुभवके बाद  निरपेक्षता  अति  है।  निरपेक्षता से  बढ़कर कोई साधन नहीं।

एकान्त  भक्तिका  लक्षण  यह है की  भगवान्  और  भक्तका  एकान्त  होता है।  भक्त  भगवान्में  मिल जाता है  और  भगवान् भक्तोंमे  मिल जाते हैं।

जिसकी  भेदबुद्धि  नहीं  रही , जिसे  संतत्वका  बोध हो गया , उसीको  सर्वत्र  भगवत्स्वरुपके  अनुभवका  परमानन्द   प्राप्त होता है।

जो सदा सम भावमे  एकाग्र  रहते  हैं , प्रभुके  भजन में  ही तत्पर  रहते हैं , वे  प्रकृतिके पार पहुंचकर  प्रभुके  स्वरूपको प्राप्त होते हैं।

जिसके ह्रदय मे विषयसे विरक्ति हो , अभेदभावसे  श्रीहरिचरनोमे  भक्ति  हो ,  भजनमे अनन्य  प्रीति  हो  उसके  स्वयं  श्रीहरि ही आज्ञां  कारक  है।

जो  शिश्नोदरभोगमे  ही आसक्त  है , जो अधर्म्मे  रत है , ऐसे विषयसक्तोंको  असाधु समझो।  उसका  संग मात करो।  कर्मणा, वाचा , मनसा उसका त्याग कर दो।

जो बड़ा  भरी  विरक्त बनता है , पर हृदयमे अधर्मकामरत  रहता  है , कामवश  द्वेष  करता है  वह  भी  निश्चित  कुसंग है।

जो बड़ा  सात्विक बनता  है , पर ह्रदय में  संतोंकी  दोष  देखता  है  वह अतिदुष्ट  दुःसंग है।

पर  सबसे  मुख्य  दुःसंग  अपना ही काम है , अपनी ही  सकमता  है।  इसे  समूल त्याग  देनेसे  ही  दुःसंगता  त्यागी जाती है।  उस काम -कल्पनाको  जो  नर त्यागता है , उसके लिए  संसार सुख स्वरुप होता है।

उस काम -कल्पना  को  त्यागनेका  मुख्य  साधन  केवल  सत्संग है।  संतोंके  श्रीचरणोंको  वंदन करनेसे  काम मारा  जाता है।

सत्संगके  बिना  जो साधन है , वह साधकोंको  बांधनेवाला  कठिन  बंधन है।  सत्संग के बिना जो त्याग है , वह केवल पाखंड है। 

शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

परमात्मा का दास बनो और नरदेह को समझो

गृहस्थाश्रममे  रहकर भी जिसका  चित्त प्रभुके  रंग में  रंग गया  और  इस  कारण  जिसकी  गृहासक्ति  छूट गयी , उसे  गृहस्थाश्रम  में  भी  भगवत्प्राप्ति  होती  है  और  निजसम्बन्धमे  ही सारी  सुख  संपत्ति  मिल जाती  है। 

जीव  और  परमात्मा  दोनों एक है।  इस बात को  जान लेना  ही ज्ञान  है। वह  ऐक्य  लाभकर  परमात्म सुख  भोगना  सम्यक विज्ञानं है। 

मै  ही  देव  हूँ , मै  ही  भक्त  हूँ , पूजाकी  सामग्री  भी  मै  ही हूँ , मै  ही  अपनी  पूजा  करता  हूँ  यह  अभेद -उपासना का  एक रूप है। 

सहज अनुकम्पा से  प्रनिओं  के साथ  अन्न , वस्त्र , दान , मान  इत्यादि से  प्रिय आचरण  करना  चाहिए।  यही  सबका  स्वधर्म  है। 

पिता स्वयमेब  नारायण  है।  माता  प्रत्यक्ष  लक्ष्मी  है। ऐसे  भावसे  जो भजन  करता है , वाही सुपुत्र है। 

बहते पानी पर  चाहे  जितने लकीरें  खींचो  एक भी लकीर न खिंचेगी , वैसे  ही  सत्त्वशुद्धि  के  बिना  आत्मज्ञानकी  एक  किरण प्रकट न होगी। 

धन्य  है  नरदेह का मिलना , धन्य है   साधुओं का  सत्संग , धन्य है  व  भक्त जो भगवत्भक्ति में  रंग गए। 

वैष्ण्वोंको  जो एक जाती  मानता  है , शालग्राम को जो एक पाषाण  समझता  है , सद्गुरुको एक मनुष्य  मानता  है , उसने कुछ न समझा। 

जो निज सत्ता  छोड़कर पराधीन में  जा फंसा , उसे  स्वप्नमें  भी सुखकी वार्ता  नहीं  मिलती। 

जो धन के लोभ मे  फंसा हुआ है  , उसे कल्पनान्त  मे  भी मुक्ति  नहीं  मिल सकती।  जो  सर्वदा  स्त्री -कामी  है , उसे  परमार्थ  या  आत्मबोध  नहीं  मिल सकता।

जब  सूर्यनारायण  प्राची दिशा मे  आते है  तब  तारें  अस्त  हो जाते है। वैसे  ही  भक्तिके  प्रबोधकाल मे  कामादिकों की  होली हो जाती है। 

सत्य  के सामान कोई तप  नहीं  होती है  , सत्यके  समान  कोई जप नहीं है। सत्यसे सद्रूप प्राप्त  होता है।  सत्यसे साधक  निष्पाप  होते है। 

वाणीमे  चाहे  कोई सबसे श्रेष्ठ क्यों न हो , वह यदि  हरीचरणो  मे  विमुख है  तो  उससे वह चांडाल श्रेष्ठ है  जो प्रतिदिन  भगवत भजन करता है। 

अंतःशुद्धिका  मुख्य  साधन हरी कीर्तन  है।  नाम के समान  और कोई साधन ही नहीं। 

भक्त जहाँ रहता  है , वहां  सभी प्रकार  दिशाएं  सुखमय  हो जाती है। वह जहाँ  खड़ा होता है , वहां सुखसे महा सुख आकर रहता है। 

अभिमान  का सर्वथा  त्याग ही त्याग की मुख्य लक्षण  है।  

सम्पूर्ण  अभिमान को त्याग कर  प्रभुकी शरण मे  जानेसे तुम जन्म-मरण  आदिके  द्वन्द्से  तर जाओगे। 

जो  हृदयस्थ है  उसकी शरण लो। 

प्रभुकी प्राप्ति मे  सबसे बड़ा बाधक है  अभिमान। 

प्रभुकी शरणमे जानेसे  प्रभुका  सारा बल प्राप्त हो जाता है, सारा भवभय  भाग जाता  है। कलिकाल  काम्पने  लगता है। 

समर्पण का  सरल उपाय है नाम स्मरण।  नामस्मरणसे  पाप भस्म  होते है। 

सकाम  नाम स्मरण करनेसे  व  नाम जो इच्छा  हो  वह  पूरी कर देता है।  निष्काम  नामस्मरण  करनेसे  वह नाम  पापको  भस्म  कर देता है। 

मनके श्रीकृष्णार्पण  होनेसे  भक्ति उल्लसित  होती है। 

अष्ट  महासिद्धियां  भक्तके चरणोमे  लोटा करती है  , वह उनकी और  देखता तक नहीं। 

जिस  भक्तको  प्रभुकी भक्ति प्राप्त हो ,उसके  सभी  व्यापर भगवत  आकार हो  जाते है। 

भक्त  जिस और रहता है , वह दिशा  श्रीकृष्ण  बन जाती है।  वह जब भोजन करने बैठता  है  तब  उसकेलिए  हरी ही षडरस  हो जाते है  . उसे जल पिलानेके  लिए  प्रभु ही जल बन जाते है। 

जब भक्त  पैदल  चलता  है  तो  शांति पद-पद पर उसके लिए  मृदु पादासन बिछाती  और उसकी  आरती  उतारती है। 

रविवार, 24 जनवरी 2016

बुराई को त्यागकर अच्छाई पकड़ें

मानव समाज सदिओं से  कुछ न कुछ बिचार धारा  का  परिवर्तन  करके जीवन को सुन्दर बनाने का प्रयास करते आ रहा हे।  मस्तिष्क  में नई  शोच लाकर  समाज में सुधार लानेका  काम कर रहा हे। धीरे  धीरे समाज में कुछ गलत विचार के कारण ये समाज कलुषित  होने जा रहा है।  जो  विभिन्न  घटना एवं दुर्घटना को जन्म दे रहा है। आइए  इन विचारों को बदलने का प्रयास करें।   व्यक्तिगत एवं  सामाजिक  विचारों का बदलने का कोशिस  करें। 

सबसे पहले  व्यक्तिगत  दोषों को परिवर्तन करें--

आलस्य को त्याग करें -समय बर्बाद करना , धीमी धीमी  गति  से  अनियमित  एवं  अस्त -व्यस्त  ढंग  से काम करना , परिश्रम  से जी चुराना , दिनचर्या  निर्धारित  न करना  आदि दोषों को  त्याग करें। 

अस्वछ्ता  त्याग करें --शरीर , बस्त्र , घर एवं  प्रयोग  में  आने  वाले  उपकरण को  गंदा  एवं अव्यवस्थित  रखना ,सफाई  एवं  सुसज्जा  में लापरवाही  बरतना , गंदगी  को  दूर करने में  उपेक्षा  करना  आदि विचार  छोड़ दें। 

 असंयमता को  त्याग करें --भोजन का चटोरपन , अनियमित  एवं असात्विक  आहार , कामुकता  की मनोवृति  एवं  अमर्यादित  प्रवृत्ति , वाचालता , निरर्थक बकवास , चंचलता , अकारण शारीरिक  अंगों का  मटकना , खरच बजट बनाकर  न करना , धन तथा  अन्य  सम्पतियों , विभूतियों  का अपव्यय , फैशन , ठाठ-बाठ  एवं  सज-धज  और  श्रृंगारपरक  फजूलखर्ची  आदि का  त्याग करें। 

अशिष्टता को त्याग करें --कटुभाषण , रुखा व्यवहार , सज्जनोचित  व्यवहार  की  कमी , बड़ों  का  असम्मान , मारपीट , गली -गुलज , उत्स्रुखल  चेष्टाएँ , नागरिक  कर्त्तव्यों  की  उपेक्षा , शेख़ीख़ोरी , आत्मप्रशंसा , अपने स्तर  से ऊँचे  स्थान  पर जा बैठना , अवांछित  मेहमान  बनना , दूसरों  का  अनावश्यक  समय  नष्ट  करना  आदि  गुणों  का  त्याग करें। 

दुर्भावनाएँ  त्याग करें -- आवेश , उत्तेजना , आपे से  बाहर होना , क्रोध , केवल दोष  ही ढूंढ़ते  रहना , कृतघ्नता , शत्रुता , अविवेकपूर्ण  आग्रह , दूसरों की  स्थिति  न समझकर  हर अप्रिय  स्थिति  को  दुष्टता  मानना , गरीवी  का तिरष्कार , अमीरी की चापलूसी  करना  आदि गुणों  को त्याग करें। 

बेईमानी करना  त्याग दें --असत्य  व्यवहार  और  अनाचरण , धोखेबाजी , छल , विस्वसघात , उत्तरदायित्वों  से  इंकार , कामचोर , उचट से  अधिक  पैसा लेना , हराम  की कमाई , प्रतिज्ञा  से मुकरना , अमानत  में खयानत ,अपनी वस्तुस्थिति  को बढाकर  बताना  आदि दोषों को त्याग दें। 

निष्ठुरता  जैसी  गुणों को त्याग करें --अनुदार स्वभाव , उपेक्षापूर्ण  व्यवहार , दुखिओं के प्रति  सहानुभूति  का  आभाव , अपने  मतलब  से  मतलब रखने की  स्वार्थता , किसी के काम न आना , पशुओं से अनुचित  काम लेना , सताना , शोषण  एवं  उत्पीड़न  की प्रवृत्ति , शिकार  खेलना , मांसाहार , हत्या किए  हुए  जानवरों का चमड़ा  प्रयोग करना , पक्षिओं  को पिंजड़े में  बंद  रखना , बैल , भैसा , तितर , मुर्गे  आदि पशु-पक्षिओं का लड़ना आदि गुणों  का  त्याग करें। 

व्यसन से दूर रहें  --तम्बाकू , शराव आदि नशों का सेवन , ताश , चोपड़ , शतरंज  आदि में अनावश्यक  समय गँवाना , जुआ , सिनेमा  आदि  मनोरजोनो में  अत्यधिक दिल्चप्सी , मटरगस्ती , लापरवाही  से समय  तथा  धन की  बर्बादी , व्यभिचार  आदि  से दूर रहें। 

असामाजिकता  न बनेँ --समाज के प्रति  अपने  उत्तरदायित्व  की उपेक्षा  सामूहिक  कार्यों  में अरुचि , व्यक्तिगत  स्वार्थपरता  में निमग्नता , अपनी ही दौलत , अमीरी तथा  सुख -सुविधा  बढ़ाने में  मस्त  रहना।  समाज की दुर्गति  तथा  प्रगति से  उदासीन  रहना , व्यक्तिगत  स्वार्थ  के लिए  सामाजिक  अव्यबस्था  फैलाने  में  संकोच  न करना।

कायरता  की गुण को  त्याग करना --अन्यायी के अप्रसन्न  होने से उत्पन्न  होने  वाली  हानि की आशंका  से अनीति  सहते रहना , अनाचार का  विरोध न करना।  दुष्टता  के समर्थन से लाभ मिलने के कारण  उसकी  सहायता  करने लगना , अनुचित को  अनुचित कहने में संकोच करना  आदि गुणों को त्याग करना। 

रविवार, 3 जनवरी 2016

मीठी वाणी का धारा

भगवान   श्रीकृष्ण  समस्त  जगतके  एकमात्र  स्वामी  है।  उनका ऐश्वर्य , माधुर्य , वात्सल्य  सभी  अनन्त  है , अपार  है।  जिसे  उसका  एक कण  भी मिल गया  वह  धन्य  धन्य  हो गया।

सभी  वैभववाले , बड़ी  आयुवाले , बड़ी  महिमावाले , आखिर  चले गए  मृत्युपथमें  ही।  सब  चले गए ; परन्तु  एक ही  रहे जो  स्वरूपकार  हुए --आत्मज्ञानी  हुए।

जिस वाणी में  हरिकथा - प्रेम है , वही  वाणी सरस  है।

प्रेम के बिना  श्रुति , स्मृति , ज्ञान  , पूजन , श्रवण  , कीर्तन  सब व्यर्थ  है।


संत का  जीवन  और मरण  हरिमय  होता  है , हरिके  सिवा  और  है  ही क्या   की  हो।  फिर  मृत्यु  के  समय  भी  हरी  स्मरण  के सिवा  और क्या  हो सकता  है। 

जो  चीनी की  मिठास  है , वाही  चीनी   है।  वैसे  ही चिदात्मा  जो  है , वही  यह  लोक है , संसार में  हरी से  भिन्न  और  कुछ  भी नहीं है। 

जो कुछ  सुन्दर  दिखाई देता है , वह श्रीकृष्ण  के  ही अंश  से ही है।  उससे  ऑंखें  ऐसी  दीवानी  हो गई  की  भगवान  के  मयूरपिच्छ में  जा लगी। 

जिसने  एकबार  श्रीकृष्ण  को  देखा , उसकी  आँखें  फिर  उससे नहीं फिरती।  अधिकाधिक  उसी रूप को  आलिंगन  करती है  और  उसीमें  लीन  हो जाती है। 
 कुल- कर्म को  मिटाना  हो , अपने  साथ सबको  मिट्टी  में  मिलाना  हो , जीवतक का अन्त  करना  है  कोई कृष्ण  को  वरण  करे। 

उठो ! श्रीकृष्ण के  चरणो  का  वंदन  करो।  लज्जा  और  अभिमान  छोड़ दो , मनको  निर्विकल्प  कर लो  और  वृत्ती  को  सावधान  करके  हरी चरणों को  वंदन  करो।

श्रीचरणों का  आलिंगन होते ही  अहं - सोहं की  गांठ  खुल  गयी।  सारा संसार  आनंदमय  हो गया।  सेव्य - सेवक  भावोंका कोई चिन्ह  नहीं रह गया।  देवी और देव एक हो गए।

सच्चा  विरक्त  उसीको कहना  जो  मानके  स्तान  से  डोर रहता  है।  वह  सत्संगमें  स्थिर रहता  है।  अपना  कोई  नया  सम्प्रदाय  नहीं चलाता  , नया  अखाडा  नहीं खोलता  , अपनी गद्दी  नहीं कायम  करता।   जीविका  के लिए दिन होकर   किसीकी  खुशामद  नहीं करता।  वह  लौकिक  नहीं होता , उसे  वस्त्रालंकार की  इच्छा  नहीं होती।  परान्नमें  रूचि  नहीं  होती , स्त्रियोंको देखना  उसे  अच्छा  नहीं  लगता।

अपनी  स्त्रीके  सिवा  अन्य  कोई  सम्बन्ध  न रखे।  अपने स्त्रीसे  भी केवल  समुचित  ही  सम्बन्ध  रखे और चिटको  कभी आसक्त  न होने दे।

प्रमदासंग से  बराबर  बचना  चाहिए।  जो निरभिमान  होकर  निःसंग  हो गया  हो ,वही  अखंड  एकांत - सेवन  कर सकता है।

स्त्री , धन  और प्रतिष्ठा  चिरंजीव- पद- प्राप्ति के  साधन में  तीन  महान विघ्न  है।

सच्चा  अनुताप  और शुद्ध  सात्विक  बैराग्य  यदि  न हो तो  श्रीकृष्ण पद  प्राप्त  करने की  आशा  करना  केवल  अज्ञान  है।

सुनो, मेरा  पागल प्रेम  ऐसा  है  की  सुन्दर  श्याम  श्रीराम  ही  मेरे  अद्वितीय  ब्रह्म  है  और  कुछ  मुझे नहीं मालूम।  रामके  बिना  जो  ब्रम्हज्ञान  है  हनुमानजी  गरजकर  कहते है  की  उसकी  हमें  कोई  जरुरत  नहीं।  हमारा ब्रम्ह  तो राम है।

जो मोल  लेकर  गन्दी मदिरा  पान  करता  है ,  वही  उसके नशेमे चूर होकर  नाचता -गाता  है , तब  जिसने भगवत्प्रेमकी  दिव्या मदिरा का  सेवन  किया हो , वह कैसे  चुपचाप बैठ सकता है।

भगवानके  चरणों में  अपरोक्ष  स्थिति  हो जाय  तो  वहां  क्षणार्धमें  होनेवाली  प्राप्तिके  सामने  त्रिभुवन - विभव-संपत्ति  भी  भक्त के लिए  तृण  के समान  है।

याचना  किये बिना  यदृच्छासे  जो  कुछ  मिले  उसे  साधक  मंगलमय  प्रभुका  महाप्रसाद  समझकर  स्वनदसे  भोग लगावे।

दारा , सुत , गृह , प्राण  सब  भगवनको  अर्पण  कर देना  चाहिए।  यह  पूर्ण भागवत  धर्म  है।  मुख्यतः  इसीका  नाम भजन है।

साधु-संतोंसे  मैत्री  करो ,सबसे पुराना  परिचय  रखो , सबके श्रेष्ठ  सखा  बनो , सबके साथ  सामान रहो।

भगवान्की  अचरसहित  भक्ति  सब योगोंका  योगगह्वर , वेदांतका  निजभण्डार , सकल  सिद्धिओंका  परम  सार  है।