रविवार, 27 सितंबर 2015

अमृत धारा

संतोंकी  जीवनचर्या संसारके  लिए  आइनेके सामान  होती  है।

सब भूतोंसे  समदृष्टि से  केवल  एक  हरिको  ही देखना  चाहिए।

जो  निर्द्वंद होकर  निंदा  सह  लेता  है  उसकी  माता  धन्य है।

भगवन ही  सब  साधनोंके  सध्य है  और  सब  चराचर  प्राणिओंमे  भगवान् को  देखकर  सर्वत्र   अखंड
 भगवतबृद्धि को  स्थिर  रखना  और  सबके  कल्याणका  उद्योग  करना  अर्थात  लोकसंग्रह  और
 लोकोपकारमे  तन- मन -प्राण  अर्पण  करना  ही  सच्ची  हरी  भक्त  है।

समदर्शी , निरपेक्ष  और  निरहंकार  होकर  सब  भूतोंमें  भगवान  भरे  है  ऐसा  जानकर  जो  लोकोपकार  होता है  वही  उत्तम  हरी  भजन है।

सब  प्रनिओंमें  भगवान् को  विद्यमान  जानकर  उनके  हितार्थ  अहंभावरहित  होकर  कायेन -मनसा - बाचा  उद्योग  करना ही  भगवन की  सेवा  है।

जो स्थूल  है  वही  सुख्म  है , दॄश्य है  वही  अदृश्य  है , व्यक्त  है  वही  अव्यक्त  है , सगुण  है  वही  निर्गुण  है , अंदर  है  वही  बाहर  है।

भगवन  सर्वत्र  है , पर  जो  भक्त  नहीं है , उन्हें  नहीं  दिखाई  देते।  जलमें , स्थलमें , पथरमे  कहाँ  नहीं  है , जिधर  देखो उधर ही भगवन  है , पर  अभक्तोंको  केवल  शुन्य  दिखाई  देता  है।

एकत्वके  साथ  सृष्टिको  देखनेसे  दृष्टिमे भगवन ही भर जाते  हैं।

धन्य  है  सतगुरु  जिन्होंने  गोविन्द  दिखा  दिया।

संथोकी  घर-द्धार , अंदर - बाहर , कर्ममें , बाणीमे  और मनमे  भगबतभक्तिके  सिबा  और  कुछ  भी  नहीं  मिल सकता।

संतोंके  कर्म ,ज्ञान  और  भक्ति  हरिमय  होते  है।  शांति, क्ष्यमा , दया  आदि  देबी  गुण  संतोंके  आँगनमे  लोटा  करते है।

संत  सेवा  मुक्तिका  द्वार  है।

भगवान्  स्वयं  संतोंके  घरमें  घुसकर  अपना  दखल  जमाते हैं।

सद्गुरुके  सामने  वेद  मौन  हो गये , शास्त्र  दीवाने  हो  गए  और वाक्  भी  बंद  हो  गयी।  सद्गुरुकी  कृपादृष्टि  जिसपर  पड़ती है , उसकी  दृष्टिमें  सारे  सृष्टि  श्रीहरिमय  हो जाती  है।

धन्य  है  श्रीगुरुदेव  जिन्होंने  अखण्ड  नाम- स्मरण  करा दिया।

सद्गुरुचरणो का  लाभ  जिसे  हो गया , वह  प्रपंचसे  मुक्त हो गया।

सारा  प्रपंच  छोड़कर  भगवत चरण  का  ही  सदा  ध्यान  करना  चाहिए।

सद्गुरुका  सहारा  जिसे मिल गया , कलिकाल  उसका  कुछ  बिगाड़  नहीं  सकता।

भक्ति, बैराग्य  और  ज्ञानका  स्वयं  आचरण  करके  दूसरोंकी  इसी  आचरण में  लगानेका  नाम  ही  लोकसंग्रह  है।

सिद्धिओंकी  मनोरथ  केवल  मनोरंजन  है , उनमें  परमार्थ  नहीं , प्रायः  बने  हुए  लोग ही  सिद्धिओंका  बाजार  लगाते  है  और  गऱीबोंको  ठगते  है।

कलिकाल  बड़ा  भीषण है , इसमें  केवल  प्रभुके  नामका ही  सहारा है।

इन्द्र और चींटी  दोनों  देहतः  सामान है।  देहमात्र ही  नस्वर है।  सबके  शरीर  नाशवान  है।  शरीरका  पर्दा  हटाकर  देखो  तो सर्वत्र  भगवान  ही है।  भगवान  सिबा  और क्या  है ? अपनी  दृष्टी  चिन्मय हो  तो  सर्वत्र  श्रीहरि  ही है।

श्रीकृष्ण  तो  सर्वत्र रम  रहे है।  वह संपूर्ण  विश्व के  अंदर  और  बाहर  व्याप्त  है।  जहाँ  हो  वहीँ  देखो , वहीँ  तुम्हे  वह दर्शन  देंगे।

दृश्य , दर्शन , द्रष्टा -- तीनोका  पाकर  देखो  तो  बस  श्रीकृष्ण  -ही - श्रीकृष्ण है।


बुधवार, 2 सितंबर 2015

अमृत वाणी

पहले  ईश्वरको  प्राप्त  करनेकी  चेष्टा  करो।   गुरुवाक्यमें  विश्वास  करके  कुछ  कर्म  करो।  गुरु  न  हो  तो  भगवान के  पास  व्याकुल  प्राणसे  प्रार्थना  करो।  वह  उन्हीकी  कृपासे  मालूम हो  जायेगा।

सांसारिक  पुरुष  धन , मान , बिषयादि  असार  वस्तुओंका  संग्रह  कर  सुखकी  आशा  करते  हैं।  परन्तु  वह  सब  किसी  प्रकारकी  सुख  नहीं  दे  सकते। 

भगवान्  जीवको  पापसे  लिपटा  रहने  नहीं  देता।  वह  दया कर  झट  उसका  उद्धार  कर  देता  है। 

पूर्व  दिशा में  जितना  ही  चलोगे  पश्चिम  दिशा  उतनीही  दूर  होती  जाएगी।  इसी  प्रकार  धर्म  पथपर  जितना  ही  अग्रसर  होओगे , संसार  उतनीही  दूर  पीछे  छूटता  जाएगा। 

कलियुगमें  प्रेम पूर्ण  ईश्वरकी  ही  सर्वश्रेष्ठ  तथा  सार  वस्तु  है। 

भगवान्  सबको  देखते हैं , किन्तु  जबतक  वे किसीको  अपनी  इछा से  दिखाई  नहीं  देते  तबतक  कोई  उनको  देख या  पहचान  नहीं  सकता।

प्रेमसे  हरिनाम  गाओ।  प्रेमसे  कीर्तन - रंगमें  मस्त  होकर  नाचो।  इससे  तरोगे , तरोगे।  संसारसे  तर  जाओगे।

गुरु  ही  माता , गुरु  ही  पिता  और  गुरु  ही  हमारे  कुलदेव  है।  महान  संकट  पड़नेपर  आगे  पीछे  वही  हमारी  रक्षा  करनेवाले  हैं।  यह  काया , वाक्  और  मन  उन्हीकी  चरणोंमें  अर्पण है।

कीर्तनसे  स्वधर्मकी  बृद्धि  होती  है , कीर्तनसे  स्वधर्मकी प्राप्ति  होती  है , कीर्तनकी  सामने  मुक्ति  भी लज्जित  होकर  भाग  जाती है।

कलियुगमें  नाम स्मरण  और  हरी  कीर्तनसे  जीवमात्रका  उद्धार  होता  है।

सब  दानोंमेसे  श्रेष्ठ  दान अन्नदान  है  और उससे  भी श्रेष्ठ  दान ज्ञान दान  है।

बैठकर  राम-नामके  ध्यानका  अनुष्ठान  करें , उसीसे  मनको  दृढ़  कर  एकनिष्ठ  भावसे  मग्न  हो।  इससे  बढ़कर  कोई  साधन है  नहीं।

परद्रव्य  और  परदाराको  छूत  मानें।  इससे  बढ़कर  निर्मल  कोई तप  नहीं  है।

इस  कलियुगमें  राम -नाम के  सिवा  कोई  आधार  नहीं  है।

मनमें  भगवान् का  रूप  ऐसा  आकर  बैठजाए  की  जाग्रत , स्वप्न और सुसुप्ति  कोई  भी  अवस्था  याद  न  आवे।

इन  कानोंसे  तेरा  नाम  और गुण  सुनूंगा।  इस  पैरोंसे  तीर्थोंकी  ही  रास्ते  चलूँगा।  यह  नश्वर  देह  किस  कामकी ?

भगवन ! मुझे  ऐसी  प्रेम भक्ति  दे  की  मुंहसे  तेराही  नाम  अखण्डरूपसे  लेता  रहूँ।

अपनी  स्तृति  और  दूस्ररोंकी  निंदा , है  गोविन्द ! में  कभी न करूँ।  सब  प्राणिओंमें  है  राम  ! में  तुम्हे  ही  देखूं  और  तेरे  प्रसादसे  ही  संतुष्ट  रहूँ।

भगवान्का  आवाहन  किया , पर  इस  आवाहनमें  विसर्जनका  कुछ  काम  नहीं।  जब  चित्त  उसीमें  लीन  होता  है  तो  गाते   भी  नहीं  बनता।

जो  सब  देबोंका  पिता है , उसके  चरोंोकि  शरण  लेते  ही  साडी  माया  छूट  जाती  है , सब  संदेह  नष्ट  हो  जाते  हैं।

वह  ज्ञानदीप  जलाया  जिससे  चिन्ताका  कोई  काजल  नहीं  और आनंद  भारित  प्रेमसे  देवाधिदेव  श्रीहरिकी  आरती  की। .सब भेद  और विकार  उड़  गए।

भीतर -बाहर , चर - अचरमें  सर्बत्र  श्रीहरि  ही  बिराज  रहें हैं।  उन्होंने  मेरा  मन  हर  लिया , मेरा - तेरा  भाव  निकाल दिया।

योग , तप , कर्म  और  ज्ञान --ये  सब भगवन के  लिए  है।  भगवान् के  बिना  इनका  कुछभी  मूल्य  नहीं  है।

भगवानके  चरणोंमें  संसारको  समर्पित  करके  भक्त  निश्चिन्त  रहते  हैं  और  तब  वह  सारा  प्रपंच  भगवान् का  ही  हो  जाता  है।

गंगा  सागरसे  मिलने  जाती  है ; परन्तु  जाती  हुई  जगत् का  पाप - ताप  निवारण  करती  है। उसी प्रकार आत्मस्वरूपको  प्राप्त  जो  संत  है  वे  अपने  सहज  कर्मोंसे  संसारमें  बंधे  बंदिओंको  छुड़ाते  हैं।