संतोंकी जीवनचर्या संसारके लिए आइनेके सामान होती है।
सब भूतोंसे समदृष्टि से केवल एक हरिको ही देखना चाहिए।
जो निर्द्वंद होकर निंदा सह लेता है उसकी माता धन्य है।
भगवन ही सब साधनोंके सध्य है और सब चराचर प्राणिओंमे भगवान् को देखकर सर्वत्र अखंड
भगवतबृद्धि को स्थिर रखना और सबके कल्याणका उद्योग करना अर्थात लोकसंग्रह और
लोकोपकारमे तन- मन -प्राण अर्पण करना ही सच्ची हरी भक्त है।
समदर्शी , निरपेक्ष और निरहंकार होकर सब भूतोंमें भगवान भरे है ऐसा जानकर जो लोकोपकार होता है वही उत्तम हरी भजन है।
सब प्रनिओंमें भगवान् को विद्यमान जानकर उनके हितार्थ अहंभावरहित होकर कायेन -मनसा - बाचा उद्योग करना ही भगवन की सेवा है।
जो स्थूल है वही सुख्म है , दॄश्य है वही अदृश्य है , व्यक्त है वही अव्यक्त है , सगुण है वही निर्गुण है , अंदर है वही बाहर है।
भगवन सर्वत्र है , पर जो भक्त नहीं है , उन्हें नहीं दिखाई देते। जलमें , स्थलमें , पथरमे कहाँ नहीं है , जिधर देखो उधर ही भगवन है , पर अभक्तोंको केवल शुन्य दिखाई देता है।
एकत्वके साथ सृष्टिको देखनेसे दृष्टिमे भगवन ही भर जाते हैं।
धन्य है सतगुरु जिन्होंने गोविन्द दिखा दिया।
संथोकी घर-द्धार , अंदर - बाहर , कर्ममें , बाणीमे और मनमे भगबतभक्तिके सिबा और कुछ भी नहीं मिल सकता।
संतोंके कर्म ,ज्ञान और भक्ति हरिमय होते है। शांति, क्ष्यमा , दया आदि देबी गुण संतोंके आँगनमे लोटा करते है।
संत सेवा मुक्तिका द्वार है।
भगवान् स्वयं संतोंके घरमें घुसकर अपना दखल जमाते हैं।
सद्गुरुके सामने वेद मौन हो गये , शास्त्र दीवाने हो गए और वाक् भी बंद हो गयी। सद्गुरुकी कृपादृष्टि जिसपर पड़ती है , उसकी दृष्टिमें सारे सृष्टि श्रीहरिमय हो जाती है।
धन्य है श्रीगुरुदेव जिन्होंने अखण्ड नाम- स्मरण करा दिया।
सद्गुरुचरणो का लाभ जिसे हो गया , वह प्रपंचसे मुक्त हो गया।
सारा प्रपंच छोड़कर भगवत चरण का ही सदा ध्यान करना चाहिए।
सद्गुरुका सहारा जिसे मिल गया , कलिकाल उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
भक्ति, बैराग्य और ज्ञानका स्वयं आचरण करके दूसरोंकी इसी आचरण में लगानेका नाम ही लोकसंग्रह है।
सिद्धिओंकी मनोरथ केवल मनोरंजन है , उनमें परमार्थ नहीं , प्रायः बने हुए लोग ही सिद्धिओंका बाजार लगाते है और गऱीबोंको ठगते है।
कलिकाल बड़ा भीषण है , इसमें केवल प्रभुके नामका ही सहारा है।
इन्द्र और चींटी दोनों देहतः सामान है। देहमात्र ही नस्वर है। सबके शरीर नाशवान है। शरीरका पर्दा हटाकर देखो तो सर्वत्र भगवान ही है। भगवान सिबा और क्या है ? अपनी दृष्टी चिन्मय हो तो सर्वत्र श्रीहरि ही है।
श्रीकृष्ण तो सर्वत्र रम रहे है। वह संपूर्ण विश्व के अंदर और बाहर व्याप्त है। जहाँ हो वहीँ देखो , वहीँ तुम्हे वह दर्शन देंगे।
दृश्य , दर्शन , द्रष्टा -- तीनोका पाकर देखो तो बस श्रीकृष्ण -ही - श्रीकृष्ण है।
सब भूतोंसे समदृष्टि से केवल एक हरिको ही देखना चाहिए।
जो निर्द्वंद होकर निंदा सह लेता है उसकी माता धन्य है।
भगवन ही सब साधनोंके सध्य है और सब चराचर प्राणिओंमे भगवान् को देखकर सर्वत्र अखंड
भगवतबृद्धि को स्थिर रखना और सबके कल्याणका उद्योग करना अर्थात लोकसंग्रह और
लोकोपकारमे तन- मन -प्राण अर्पण करना ही सच्ची हरी भक्त है।
समदर्शी , निरपेक्ष और निरहंकार होकर सब भूतोंमें भगवान भरे है ऐसा जानकर जो लोकोपकार होता है वही उत्तम हरी भजन है।
सब प्रनिओंमें भगवान् को विद्यमान जानकर उनके हितार्थ अहंभावरहित होकर कायेन -मनसा - बाचा उद्योग करना ही भगवन की सेवा है।
जो स्थूल है वही सुख्म है , दॄश्य है वही अदृश्य है , व्यक्त है वही अव्यक्त है , सगुण है वही निर्गुण है , अंदर है वही बाहर है।
भगवन सर्वत्र है , पर जो भक्त नहीं है , उन्हें नहीं दिखाई देते। जलमें , स्थलमें , पथरमे कहाँ नहीं है , जिधर देखो उधर ही भगवन है , पर अभक्तोंको केवल शुन्य दिखाई देता है।
एकत्वके साथ सृष्टिको देखनेसे दृष्टिमे भगवन ही भर जाते हैं।
धन्य है सतगुरु जिन्होंने गोविन्द दिखा दिया।
संथोकी घर-द्धार , अंदर - बाहर , कर्ममें , बाणीमे और मनमे भगबतभक्तिके सिबा और कुछ भी नहीं मिल सकता।
संतोंके कर्म ,ज्ञान और भक्ति हरिमय होते है। शांति, क्ष्यमा , दया आदि देबी गुण संतोंके आँगनमे लोटा करते है।
संत सेवा मुक्तिका द्वार है।
भगवान् स्वयं संतोंके घरमें घुसकर अपना दखल जमाते हैं।
सद्गुरुके सामने वेद मौन हो गये , शास्त्र दीवाने हो गए और वाक् भी बंद हो गयी। सद्गुरुकी कृपादृष्टि जिसपर पड़ती है , उसकी दृष्टिमें सारे सृष्टि श्रीहरिमय हो जाती है।
धन्य है श्रीगुरुदेव जिन्होंने अखण्ड नाम- स्मरण करा दिया।
सद्गुरुचरणो का लाभ जिसे हो गया , वह प्रपंचसे मुक्त हो गया।
सारा प्रपंच छोड़कर भगवत चरण का ही सदा ध्यान करना चाहिए।
सद्गुरुका सहारा जिसे मिल गया , कलिकाल उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
भक्ति, बैराग्य और ज्ञानका स्वयं आचरण करके दूसरोंकी इसी आचरण में लगानेका नाम ही लोकसंग्रह है।
सिद्धिओंकी मनोरथ केवल मनोरंजन है , उनमें परमार्थ नहीं , प्रायः बने हुए लोग ही सिद्धिओंका बाजार लगाते है और गऱीबोंको ठगते है।
कलिकाल बड़ा भीषण है , इसमें केवल प्रभुके नामका ही सहारा है।
इन्द्र और चींटी दोनों देहतः सामान है। देहमात्र ही नस्वर है। सबके शरीर नाशवान है। शरीरका पर्दा हटाकर देखो तो सर्वत्र भगवान ही है। भगवान सिबा और क्या है ? अपनी दृष्टी चिन्मय हो तो सर्वत्र श्रीहरि ही है।
श्रीकृष्ण तो सर्वत्र रम रहे है। वह संपूर्ण विश्व के अंदर और बाहर व्याप्त है। जहाँ हो वहीँ देखो , वहीँ तुम्हे वह दर्शन देंगे।
दृश्य , दर्शन , द्रष्टा -- तीनोका पाकर देखो तो बस श्रीकृष्ण -ही - श्रीकृष्ण है।