रविवार, 24 जनवरी 2016

बुराई को त्यागकर अच्छाई पकड़ें

मानव समाज सदिओं से  कुछ न कुछ बिचार धारा  का  परिवर्तन  करके जीवन को सुन्दर बनाने का प्रयास करते आ रहा हे।  मस्तिष्क  में नई  शोच लाकर  समाज में सुधार लानेका  काम कर रहा हे। धीरे  धीरे समाज में कुछ गलत विचार के कारण ये समाज कलुषित  होने जा रहा है।  जो  विभिन्न  घटना एवं दुर्घटना को जन्म दे रहा है। आइए  इन विचारों को बदलने का प्रयास करें।   व्यक्तिगत एवं  सामाजिक  विचारों का बदलने का कोशिस  करें। 

सबसे पहले  व्यक्तिगत  दोषों को परिवर्तन करें--

आलस्य को त्याग करें -समय बर्बाद करना , धीमी धीमी  गति  से  अनियमित  एवं  अस्त -व्यस्त  ढंग  से काम करना , परिश्रम  से जी चुराना , दिनचर्या  निर्धारित  न करना  आदि दोषों को  त्याग करें। 

अस्वछ्ता  त्याग करें --शरीर , बस्त्र , घर एवं  प्रयोग  में  आने  वाले  उपकरण को  गंदा  एवं अव्यवस्थित  रखना ,सफाई  एवं  सुसज्जा  में लापरवाही  बरतना , गंदगी  को  दूर करने में  उपेक्षा  करना  आदि विचार  छोड़ दें। 

 असंयमता को  त्याग करें --भोजन का चटोरपन , अनियमित  एवं असात्विक  आहार , कामुकता  की मनोवृति  एवं  अमर्यादित  प्रवृत्ति , वाचालता , निरर्थक बकवास , चंचलता , अकारण शारीरिक  अंगों का  मटकना , खरच बजट बनाकर  न करना , धन तथा  अन्य  सम्पतियों , विभूतियों  का अपव्यय , फैशन , ठाठ-बाठ  एवं  सज-धज  और  श्रृंगारपरक  फजूलखर्ची  आदि का  त्याग करें। 

अशिष्टता को त्याग करें --कटुभाषण , रुखा व्यवहार , सज्जनोचित  व्यवहार  की  कमी , बड़ों  का  असम्मान , मारपीट , गली -गुलज , उत्स्रुखल  चेष्टाएँ , नागरिक  कर्त्तव्यों  की  उपेक्षा , शेख़ीख़ोरी , आत्मप्रशंसा , अपने स्तर  से ऊँचे  स्थान  पर जा बैठना , अवांछित  मेहमान  बनना , दूसरों  का  अनावश्यक  समय  नष्ट  करना  आदि  गुणों  का  त्याग करें। 

दुर्भावनाएँ  त्याग करें -- आवेश , उत्तेजना , आपे से  बाहर होना , क्रोध , केवल दोष  ही ढूंढ़ते  रहना , कृतघ्नता , शत्रुता , अविवेकपूर्ण  आग्रह , दूसरों की  स्थिति  न समझकर  हर अप्रिय  स्थिति  को  दुष्टता  मानना , गरीवी  का तिरष्कार , अमीरी की चापलूसी  करना  आदि गुणों  को त्याग करें। 

बेईमानी करना  त्याग दें --असत्य  व्यवहार  और  अनाचरण , धोखेबाजी , छल , विस्वसघात , उत्तरदायित्वों  से  इंकार , कामचोर , उचट से  अधिक  पैसा लेना , हराम  की कमाई , प्रतिज्ञा  से मुकरना , अमानत  में खयानत ,अपनी वस्तुस्थिति  को बढाकर  बताना  आदि दोषों को त्याग दें। 

निष्ठुरता  जैसी  गुणों को त्याग करें --अनुदार स्वभाव , उपेक्षापूर्ण  व्यवहार , दुखिओं के प्रति  सहानुभूति  का  आभाव , अपने  मतलब  से  मतलब रखने की  स्वार्थता , किसी के काम न आना , पशुओं से अनुचित  काम लेना , सताना , शोषण  एवं  उत्पीड़न  की प्रवृत्ति , शिकार  खेलना , मांसाहार , हत्या किए  हुए  जानवरों का चमड़ा  प्रयोग करना , पक्षिओं  को पिंजड़े में  बंद  रखना , बैल , भैसा , तितर , मुर्गे  आदि पशु-पक्षिओं का लड़ना आदि गुणों  का  त्याग करें। 

व्यसन से दूर रहें  --तम्बाकू , शराव आदि नशों का सेवन , ताश , चोपड़ , शतरंज  आदि में अनावश्यक  समय गँवाना , जुआ , सिनेमा  आदि  मनोरजोनो में  अत्यधिक दिल्चप्सी , मटरगस्ती , लापरवाही  से समय  तथा  धन की  बर्बादी , व्यभिचार  आदि  से दूर रहें। 

असामाजिकता  न बनेँ --समाज के प्रति  अपने  उत्तरदायित्व  की उपेक्षा  सामूहिक  कार्यों  में अरुचि , व्यक्तिगत  स्वार्थपरता  में निमग्नता , अपनी ही दौलत , अमीरी तथा  सुख -सुविधा  बढ़ाने में  मस्त  रहना।  समाज की दुर्गति  तथा  प्रगति से  उदासीन  रहना , व्यक्तिगत  स्वार्थ  के लिए  सामाजिक  अव्यबस्था  फैलाने  में  संकोच  न करना।

कायरता  की गुण को  त्याग करना --अन्यायी के अप्रसन्न  होने से उत्पन्न  होने  वाली  हानि की आशंका  से अनीति  सहते रहना , अनाचार का  विरोध न करना।  दुष्टता  के समर्थन से लाभ मिलने के कारण  उसकी  सहायता  करने लगना , अनुचित को  अनुचित कहने में संकोच करना  आदि गुणों को त्याग करना। 

रविवार, 3 जनवरी 2016

मीठी वाणी का धारा

भगवान   श्रीकृष्ण  समस्त  जगतके  एकमात्र  स्वामी  है।  उनका ऐश्वर्य , माधुर्य , वात्सल्य  सभी  अनन्त  है , अपार  है।  जिसे  उसका  एक कण  भी मिल गया  वह  धन्य  धन्य  हो गया।

सभी  वैभववाले , बड़ी  आयुवाले , बड़ी  महिमावाले , आखिर  चले गए  मृत्युपथमें  ही।  सब  चले गए ; परन्तु  एक ही  रहे जो  स्वरूपकार  हुए --आत्मज्ञानी  हुए।

जिस वाणी में  हरिकथा - प्रेम है , वही  वाणी सरस  है।

प्रेम के बिना  श्रुति , स्मृति , ज्ञान  , पूजन , श्रवण  , कीर्तन  सब व्यर्थ  है।


संत का  जीवन  और मरण  हरिमय  होता  है , हरिके  सिवा  और  है  ही क्या   की  हो।  फिर  मृत्यु  के  समय  भी  हरी  स्मरण  के सिवा  और क्या  हो सकता  है। 

जो  चीनी की  मिठास  है , वाही  चीनी   है।  वैसे  ही चिदात्मा  जो  है , वही  यह  लोक है , संसार में  हरी से  भिन्न  और  कुछ  भी नहीं है। 

जो कुछ  सुन्दर  दिखाई देता है , वह श्रीकृष्ण  के  ही अंश  से ही है।  उससे  ऑंखें  ऐसी  दीवानी  हो गई  की  भगवान  के  मयूरपिच्छ में  जा लगी। 

जिसने  एकबार  श्रीकृष्ण  को  देखा , उसकी  आँखें  फिर  उससे नहीं फिरती।  अधिकाधिक  उसी रूप को  आलिंगन  करती है  और  उसीमें  लीन  हो जाती है। 
 कुल- कर्म को  मिटाना  हो , अपने  साथ सबको  मिट्टी  में  मिलाना  हो , जीवतक का अन्त  करना  है  कोई कृष्ण  को  वरण  करे। 

उठो ! श्रीकृष्ण के  चरणो  का  वंदन  करो।  लज्जा  और  अभिमान  छोड़ दो , मनको  निर्विकल्प  कर लो  और  वृत्ती  को  सावधान  करके  हरी चरणों को  वंदन  करो।

श्रीचरणों का  आलिंगन होते ही  अहं - सोहं की  गांठ  खुल  गयी।  सारा संसार  आनंदमय  हो गया।  सेव्य - सेवक  भावोंका कोई चिन्ह  नहीं रह गया।  देवी और देव एक हो गए।

सच्चा  विरक्त  उसीको कहना  जो  मानके  स्तान  से  डोर रहता  है।  वह  सत्संगमें  स्थिर रहता  है।  अपना  कोई  नया  सम्प्रदाय  नहीं चलाता  , नया  अखाडा  नहीं खोलता  , अपनी गद्दी  नहीं कायम  करता।   जीविका  के लिए दिन होकर   किसीकी  खुशामद  नहीं करता।  वह  लौकिक  नहीं होता , उसे  वस्त्रालंकार की  इच्छा  नहीं होती।  परान्नमें  रूचि  नहीं  होती , स्त्रियोंको देखना  उसे  अच्छा  नहीं  लगता।

अपनी  स्त्रीके  सिवा  अन्य  कोई  सम्बन्ध  न रखे।  अपने स्त्रीसे  भी केवल  समुचित  ही  सम्बन्ध  रखे और चिटको  कभी आसक्त  न होने दे।

प्रमदासंग से  बराबर  बचना  चाहिए।  जो निरभिमान  होकर  निःसंग  हो गया  हो ,वही  अखंड  एकांत - सेवन  कर सकता है।

स्त्री , धन  और प्रतिष्ठा  चिरंजीव- पद- प्राप्ति के  साधन में  तीन  महान विघ्न  है।

सच्चा  अनुताप  और शुद्ध  सात्विक  बैराग्य  यदि  न हो तो  श्रीकृष्ण पद  प्राप्त  करने की  आशा  करना  केवल  अज्ञान  है।

सुनो, मेरा  पागल प्रेम  ऐसा  है  की  सुन्दर  श्याम  श्रीराम  ही  मेरे  अद्वितीय  ब्रह्म  है  और  कुछ  मुझे नहीं मालूम।  रामके  बिना  जो  ब्रम्हज्ञान  है  हनुमानजी  गरजकर  कहते है  की  उसकी  हमें  कोई  जरुरत  नहीं।  हमारा ब्रम्ह  तो राम है।

जो मोल  लेकर  गन्दी मदिरा  पान  करता  है ,  वही  उसके नशेमे चूर होकर  नाचता -गाता  है , तब  जिसने भगवत्प्रेमकी  दिव्या मदिरा का  सेवन  किया हो , वह कैसे  चुपचाप बैठ सकता है।

भगवानके  चरणों में  अपरोक्ष  स्थिति  हो जाय  तो  वहां  क्षणार्धमें  होनेवाली  प्राप्तिके  सामने  त्रिभुवन - विभव-संपत्ति  भी  भक्त के लिए  तृण  के समान  है।

याचना  किये बिना  यदृच्छासे  जो  कुछ  मिले  उसे  साधक  मंगलमय  प्रभुका  महाप्रसाद  समझकर  स्वनदसे  भोग लगावे।

दारा , सुत , गृह , प्राण  सब  भगवनको  अर्पण  कर देना  चाहिए।  यह  पूर्ण भागवत  धर्म  है।  मुख्यतः  इसीका  नाम भजन है।

साधु-संतोंसे  मैत्री  करो ,सबसे पुराना  परिचय  रखो , सबके श्रेष्ठ  सखा  बनो , सबके साथ  सामान रहो।

भगवान्की  अचरसहित  भक्ति  सब योगोंका  योगगह्वर , वेदांतका  निजभण्डार , सकल  सिद्धिओंका  परम  सार  है।