रविवार, 3 जनवरी 2016

मीठी वाणी का धारा

भगवान   श्रीकृष्ण  समस्त  जगतके  एकमात्र  स्वामी  है।  उनका ऐश्वर्य , माधुर्य , वात्सल्य  सभी  अनन्त  है , अपार  है।  जिसे  उसका  एक कण  भी मिल गया  वह  धन्य  धन्य  हो गया।

सभी  वैभववाले , बड़ी  आयुवाले , बड़ी  महिमावाले , आखिर  चले गए  मृत्युपथमें  ही।  सब  चले गए ; परन्तु  एक ही  रहे जो  स्वरूपकार  हुए --आत्मज्ञानी  हुए।

जिस वाणी में  हरिकथा - प्रेम है , वही  वाणी सरस  है।

प्रेम के बिना  श्रुति , स्मृति , ज्ञान  , पूजन , श्रवण  , कीर्तन  सब व्यर्थ  है।


संत का  जीवन  और मरण  हरिमय  होता  है , हरिके  सिवा  और  है  ही क्या   की  हो।  फिर  मृत्यु  के  समय  भी  हरी  स्मरण  के सिवा  और क्या  हो सकता  है। 

जो  चीनी की  मिठास  है , वाही  चीनी   है।  वैसे  ही चिदात्मा  जो  है , वही  यह  लोक है , संसार में  हरी से  भिन्न  और  कुछ  भी नहीं है। 

जो कुछ  सुन्दर  दिखाई देता है , वह श्रीकृष्ण  के  ही अंश  से ही है।  उससे  ऑंखें  ऐसी  दीवानी  हो गई  की  भगवान  के  मयूरपिच्छ में  जा लगी। 

जिसने  एकबार  श्रीकृष्ण  को  देखा , उसकी  आँखें  फिर  उससे नहीं फिरती।  अधिकाधिक  उसी रूप को  आलिंगन  करती है  और  उसीमें  लीन  हो जाती है। 
 कुल- कर्म को  मिटाना  हो , अपने  साथ सबको  मिट्टी  में  मिलाना  हो , जीवतक का अन्त  करना  है  कोई कृष्ण  को  वरण  करे। 

उठो ! श्रीकृष्ण के  चरणो  का  वंदन  करो।  लज्जा  और  अभिमान  छोड़ दो , मनको  निर्विकल्प  कर लो  और  वृत्ती  को  सावधान  करके  हरी चरणों को  वंदन  करो।

श्रीचरणों का  आलिंगन होते ही  अहं - सोहं की  गांठ  खुल  गयी।  सारा संसार  आनंदमय  हो गया।  सेव्य - सेवक  भावोंका कोई चिन्ह  नहीं रह गया।  देवी और देव एक हो गए।

सच्चा  विरक्त  उसीको कहना  जो  मानके  स्तान  से  डोर रहता  है।  वह  सत्संगमें  स्थिर रहता  है।  अपना  कोई  नया  सम्प्रदाय  नहीं चलाता  , नया  अखाडा  नहीं खोलता  , अपनी गद्दी  नहीं कायम  करता।   जीविका  के लिए दिन होकर   किसीकी  खुशामद  नहीं करता।  वह  लौकिक  नहीं होता , उसे  वस्त्रालंकार की  इच्छा  नहीं होती।  परान्नमें  रूचि  नहीं  होती , स्त्रियोंको देखना  उसे  अच्छा  नहीं  लगता।

अपनी  स्त्रीके  सिवा  अन्य  कोई  सम्बन्ध  न रखे।  अपने स्त्रीसे  भी केवल  समुचित  ही  सम्बन्ध  रखे और चिटको  कभी आसक्त  न होने दे।

प्रमदासंग से  बराबर  बचना  चाहिए।  जो निरभिमान  होकर  निःसंग  हो गया  हो ,वही  अखंड  एकांत - सेवन  कर सकता है।

स्त्री , धन  और प्रतिष्ठा  चिरंजीव- पद- प्राप्ति के  साधन में  तीन  महान विघ्न  है।

सच्चा  अनुताप  और शुद्ध  सात्विक  बैराग्य  यदि  न हो तो  श्रीकृष्ण पद  प्राप्त  करने की  आशा  करना  केवल  अज्ञान  है।

सुनो, मेरा  पागल प्रेम  ऐसा  है  की  सुन्दर  श्याम  श्रीराम  ही  मेरे  अद्वितीय  ब्रह्म  है  और  कुछ  मुझे नहीं मालूम।  रामके  बिना  जो  ब्रम्हज्ञान  है  हनुमानजी  गरजकर  कहते है  की  उसकी  हमें  कोई  जरुरत  नहीं।  हमारा ब्रम्ह  तो राम है।

जो मोल  लेकर  गन्दी मदिरा  पान  करता  है ,  वही  उसके नशेमे चूर होकर  नाचता -गाता  है , तब  जिसने भगवत्प्रेमकी  दिव्या मदिरा का  सेवन  किया हो , वह कैसे  चुपचाप बैठ सकता है।

भगवानके  चरणों में  अपरोक्ष  स्थिति  हो जाय  तो  वहां  क्षणार्धमें  होनेवाली  प्राप्तिके  सामने  त्रिभुवन - विभव-संपत्ति  भी  भक्त के लिए  तृण  के समान  है।

याचना  किये बिना  यदृच्छासे  जो  कुछ  मिले  उसे  साधक  मंगलमय  प्रभुका  महाप्रसाद  समझकर  स्वनदसे  भोग लगावे।

दारा , सुत , गृह , प्राण  सब  भगवनको  अर्पण  कर देना  चाहिए।  यह  पूर्ण भागवत  धर्म  है।  मुख्यतः  इसीका  नाम भजन है।

साधु-संतोंसे  मैत्री  करो ,सबसे पुराना  परिचय  रखो , सबके श्रेष्ठ  सखा  बनो , सबके साथ  सामान रहो।

भगवान्की  अचरसहित  भक्ति  सब योगोंका  योगगह्वर , वेदांतका  निजभण्डार , सकल  सिद्धिओंका  परम  सार  है। 

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