बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

संसार , प्रेम , भक्ति और भगवान्

संसार , सच  कहिये  तो  दुःखोंका  घर  है।  जन्म -मरण के  महादुःखके  बीचमे  घूमनेवाले  इस संसार मे  जो भी  आया  वह  दुःखोंका  मेहमान  हुआ। 

संसार  दुःख  स्वरुप  है , यही तो  शास्त्रका  सिद्धान्त  हे  और  यही  जीवमात्रका  अन्तिम  अनुभव है। 

भगवत्संकल्पके  अनुसार  ही  सृष्टिके  सब  व्यापार  हुआ  करते है।  सामान्य  जीव  सांसारिक  दुःखोंकी  चक्रमे  पीस   जाते है , पर वे  ही  दुःख  भाग्यवान्  पुरुषोंके  उद्धारका  कारण बनते  हैं। 

सच्चा  प्रेम  कभी मरता  नहीं , काल भी  उसे  मार नहीं  सकता। 

प्रेम तो  निष्काम -निर्विषय  ही होता है  और उसका  एकमात्र  भाजन  परमात्मा  है।  ऐसा  प्रेम  भक्तोंके  ही  भाग्यमें होता है। 

भक्तोमे  सच्चाई  होती है।  वैराग्य  के  अंजनमे  जब  आँखें  खुल  जाती है , तब  नश्वर  संसार के  भेद -भावोमे  बंटे  हुए  प्रेमको  एक जगह  बटोरकर  वे  एक  परमात्मा को  अर्पण  कर देते  है।  फिर  प्रेमामृतकी  धारा  भगवान के सम्मुख ही  प्रबाहित होने लगती  हे। 

सबके  परम सुहृद  प्रभु  जो कुछ  करते हैं , उसीमे हमारा  परम हित  है। 

भगवान्  भक्तको  गृहप्रपंच  करने ही  नहीं देते।  सब झंझटोंसे  अलग रखते  है। 

बहुत  मारा -मारा  फिरा।  लूट  गया।  तड़पते ही दिन  बिट रहे  है।  हे दीनानाथ ! संसारमें  विरद  रखो। 

निःसार  है  यह  संसार। यहाँ  सर केवल  भगवान है। 


संसार  काळग्रस्त , नश्वर  और दुःख स्वरुप  है।  इसका  सारा  घटाटोप  व्यर्थ  है।  भगवान्  मिले  तो  ही  जन्म सफल  है। 

यह  सब  नाशवान  है , गोपालकों  स्मरण कर , वही हित है। 

सुख  देखिये तो  राई -बराबर  है  और  दुःख  पर्वत  के  बराबर। 

यह संसार  दुःखसे  बंधा  है , इसमें  सुखका  विचार  तो  कहीं भी  नहीं है। 

देह  नाशवान  है।  देह  मृत्युकी  धौकनी  है।  संसार  केवल  दुःख स्वरुप है।  सब भाई -बंधू  सुखके साथी है। 

संसार मिथ्या  है --यह  ज्ञात  हुआ  और आँखे  खुली।  दुःख में  आँखे खुलती है , तब  दुःख  ही अनुग्रह  जान  पड़ता  है। 

खटमलभरी  खाटपर  मीठी निंदका  लगना  जैसे  असंभव  है , वैसे  ही  अनित्य  संसारके  भरोसे  सुख  मिलना  भी असंभव है। 

विरक्तिके बिना  ज्ञान  नहीं ठहर  सकता।  देह्सहित  सम्पूर्ण  दृश्यमान  संसारके  नश्वरत्वकी  मुद्रा  जबतक चित्तपर  अंकित नहीं हो जाती , तबतक  वहाँ  ज्ञान नहीं  ठहर  सकता। 

यह  समस्त  संसार  अनित्य है , इस अनित्यताको  जहाँ  जान लिया  तहाँ  वैराग्य  हाथ धोकर  पीछे पद जाता है।  ऐसा  दृढ़तर  वैराग्य  उत्पन्न  होना  ही  तो  भगवान् की  दया  है। 

वैराग्य  खेल नहीं , भगवान की  दया हो तो  ही उसका  लाभ  होता है। 

भगवान जिस पर  अनुग्रह  करना  चाहते है , उसे वे पहले  वैराग्य दान करते है। 

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

भगवान् -भक्त के सम्बन्ध माता और पुत्र के सम्बन्ध के सामान

संतोंकी  मामूली  बातें  महान उपदेश  होती है।  चित्त में  पड़ी हुई  गांठ  उनके  शब्दमात्रसे  छिद  जाती है। इसीलिए  बुध्हिमानोंको  चाहिए की सत्संग  करें।  सत्संगमें  साधकोंकी  भवपाश  काट जाते है। 

हृदयमे  प्रभुका  नित्य ध्यान  हो , मुखसे  उनका  नामकीर्तन  हो , कानोंमे  सदा  उनकी  ही कथा  गूंजती हो , प्रेमानन्दमे  उनकी ही  पूजा  हो , नेत्रोंमे  हरिकी  मूर्ति विराज रही हो , चरणोंसे उनके ही स्थानकी यात्रा  हो , रासनामे  प्रभुके तीर्थ  का  रस  हो , भोजन  हो तो  वह प्रभुका प्रसाद ही  हो।  साष्टांग  नमन  हो उनके प्रति , आलिंगन  हो  अह्लादसे  उनके ही भक्तोंका  और  एक क्या आधा  पल  भी  उनकी  सेवाके बिना व्यर्थ  न जाए।  सब  धर्मोमे  यही श्रेष्ठ  धर्म है। 

बछड़ेपर  गौका  जो  भाव  होता है , उसी भावसे  हरी  मुझे  संभाले  हुए  है। 

बच्चे  अनेक  प्रकारकी  बोलिओंसे  माताको  पुकारते हैं , पर उन  बोलिओं का  यथातथ्य  ज्ञान  माताको ही होता है। 

संतोने  मर्मकी  बात  खोलकर बता  दी है  --हाथमे  झांज --मंजीरा  ले  लो  और  नाचो।  समाधिके  सुखको  इसपर  न्योछावर  कर दो।  ऐसा  ब्रह्मरस  इस नाम -संकीर्तन में  भरा हुआ  है। 

यह  समझ  लो  की  चारों  मुक्तियाँ  हरिदासोंकी दासियाँ है। 

सदा -सर्वदा  नाम --संकीर्तन  और  हरिकथा  गान  होनेसे  चित्तमे  अखण्ड  आनन्द  बना रहता है।  सम्पूर्ण  सुख  और  श्रृंगार  इसीमे मैंने  पा  लिया और  अब  आनन्दमे  झूम रहा हूँ।  अब  कहीं  कोई  कमी  ही  नहीं रहीं।  इसी देहमे  विदेहका  आनन्द  ले  रहा हूँ। 

नाम का  अखण्ड प्रेम -प्रवाह  चला है।  राम -कृष्ण , नारायण -नाम  अखण्ड  जीवन  है , कहींसे  भी  खण्डित  होनेवाला  नहीं। 

वह  कुल  पवित्र है , वह  देश  पवन है , जहाँ  हरिके  दास  जन्म लेते हैं। 

बाल -बच्चोंकी  लिए  जमीन -जायदाद  रख  जानेवाले  माँ -बाप  क्या  काम है ? दुर्लभ हैं  वे  ही  जो  अपनी  सन्ततिके  लिए  भगवद्भक्तिकी   सम्पति छोड़ जाते हैं । 

भगवान् की  यह पहचान  है की  जिसके  घर आते  है उसकी  घोर  विपत्तिमें  भी सुख  सौभाग्य  दिखाई  देता है। 

मातासे  बच्चेको यह  नहीं  कहना पड़ता  की तुम  मुझे  सम्भालो।  माता तो स्वभावसे ही उसे अपनी  छाती से  लगाए  रहती है।  इसीलिए  में  भी  सोच-विचार क्यों करूँ? जिसके  शिर  जो भार  है  वाही संभाले। 

बिना मांगे  ही  माँ  बच्चेको  खिलाती  है  और  बच्चा  जितना  भी  खाय  खिलनेसे  माता  कभी नहीं  अघाती।  खेल  खेलने में  बच्चा  भुला  रहे  तो  भी  माता  उसे  नहीं  भुलाती , बरकस  पकड़कर  उसे छाती से   चिपका  लेती  और  स्तनपान  कराती है।  बच्चेको कोई  पीड़ा हो तो  माता भाड़की  लईके  समान  बिकल  हो  उठती है। 

प्रभुका  स्नेह  माताके  स्नेहसे  भी  बढ़कर  है , फिर  सोच -विचार  क्यों करूँ ? जिसके  सिर  जो भर है  वही जाने। 

बच्चेको  उठाकर  छातीसे  लगालेना  ही  माताका  सबसे  बड़ा  सुख है।  माता उसके हाथमे  गुड़िया  देती  और  उसके कौतुक  देख  अपने  जिको  ठंडा  करती है।  उसे  आभूषण  पहनाती  और उसकी  शोभा  देख परम प्रसन्न  होती  है।  उसे अपनी  गोदमे  उठा  लेती और टकटकी लगाये  उसका  मुँह  निहारती  है।  माता  बच्चेका  रोना  सह नहीं सकती। 

मातृस्तन्मे  मुह  लगाते  ही  माताके  दूध  भर  आता है।  माँ बच्चे दोनों  लाड लड़ाते  हुए  एक  दूसरे की  इच्छा  पूरी  करते  हैं, पर  सारा  भार  है  माता के सिर। 

माताके  चित्तमे  बालक  ही भरा  रहता है।  उसे  अपनी  देहकी  सुध  नहीं  रहती।  बच्चेको  जहाँ  उसने उठा लिया वहीँ  सारी  थकावट  उसकी  दूर  हो जाती है। 

बच्चेकी  अटपटी बातें  माताको  अच्छी लगती  है।  इसी प्रकार  भगवान का  जो प्रेमी  है , उसका  सभी कुछ  भगवान्  को  प्यार  लगता  है  और  भगवान्  उसकी  सब  मनःकामनाएं  पूर्ण  करते है। 

गाय  जंगलमे  चरने  जाती है , पर  चित्त उसका  गोठमे  बंधे  बछड़ेपर ही रहता  है। मैया  मेरी ! मुझे  भी ऐसा  ही बना ले ,अपने  चरणो में  स्थान  देकर  रख ले। 

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

भक्त, भगवान और नाम

शम -दम  आज्ञाकारी  सेवक  होकर  सेवक  होकर  भक्तके  द्वारपर  हाथ  जोड़े  खड़े  रहते  है।  ऋद्धि -सिद्धि  दासी  बनकर  घरमे  काम करती है।  विवेक  टहलुआ  सदा  हाजिर  ही रहता है। 
भक्तके  प्रत्येक  शवदसे  प्रभुकी  ही  वार्ता  उठती है  और श्रोता  सुनकर  तल्लीन हो जाता  है। 

चारो  मुक्ति  मिलकर  भक्तके घर  पानी भरती है  और  श्रीके  साथ श्रीहरि  भी  उसकी   सेवामे  रहते है ---औरोकी बात  ही क्या  है ?

भक्त  भगवानकी  आत्मा  हे , वह  भगवानका  जीवन है  प्राण  है। 

प्रभु  पूर्णतः  भक्तके  अंदर  है  और  भक्त  पूर्णतः  भगवानके  अंदर  है। 

साधनोमे  मुख्य  साधन  श्रीहरिकी  भक्ति ही है।  भक्तिमें  भी  नाम  कीर्तन  विशेष है --नामसे चित  शुद्धि  होती  है --साधकोंकी  चित्त - शुद्धि  होती है --साधकोंकी  स्वरुप -स्थिति  प्राप्त  होती है। 

नाम --जैसा और  कोई  साधन  नहीं  है।  नामसे  भव -बंधन  कट  जाते हैं। 

मन ने  सबको  बाँध  रखा  है।  मनको  बाँधना  आसान  नहीं।  मनने  देवताओंको  पस्त  कर  डाला।  वह  इन्द्रिओंको  क्या  समझता  है। मनकी  भार  बड़ी  जबरदस्त  है।  मनके  सामने  कौन  ठहर  सकता  है। 

हरिसे  हिरा  काटा  जाता है।  वैसे  ही  मनसे  मन  पकड़ा  जाता  है , पर  यह  भी  तब  होता है जब  पूर्ण  हरी कृपा  होता  है।

मन  ही  मनका  बोधक , मन  ही मनका  साधक , मन ही मनका  बाधक  और मन ही मनका घातक है।

अष्टांगयोग , वेदाध्ययन , सत्यवचन  तथा  अन्य  जो -जो  साधन है , उन सधोनो  से  जो कुछ  मिलता  है  वह  सब  भगवत्भजनसे  प्राप्त  होता है।

निरपेक्ष  ही धीर  होता है।  धैर्य उसके  चरण  छूटा है।  जो अधीर है  उससे  निरपेक्षता  नहीं होती।

कोटि -कोटि  जन्मोंकी  अनुभवके बाद  निरपेक्षता  अति  है।  निरपेक्षता से  बढ़कर कोई साधन नहीं।

एकान्त  भक्तिका  लक्षण  यह है की  भगवान्  और  भक्तका  एकान्त  होता है।  भक्त  भगवान्में  मिल जाता है  और  भगवान् भक्तोंमे  मिल जाते हैं।

जिसकी  भेदबुद्धि  नहीं  रही , जिसे  संतत्वका  बोध हो गया , उसीको  सर्वत्र  भगवत्स्वरुपके  अनुभवका  परमानन्द   प्राप्त होता है।

जो सदा सम भावमे  एकाग्र  रहते  हैं , प्रभुके  भजन में  ही तत्पर  रहते हैं , वे  प्रकृतिके पार पहुंचकर  प्रभुके  स्वरूपको प्राप्त होते हैं।

जिसके ह्रदय मे विषयसे विरक्ति हो , अभेदभावसे  श्रीहरिचरनोमे  भक्ति  हो ,  भजनमे अनन्य  प्रीति  हो  उसके  स्वयं  श्रीहरि ही आज्ञां  कारक  है।

जो  शिश्नोदरभोगमे  ही आसक्त  है , जो अधर्म्मे  रत है , ऐसे विषयसक्तोंको  असाधु समझो।  उसका  संग मात करो।  कर्मणा, वाचा , मनसा उसका त्याग कर दो।

जो बड़ा  भरी  विरक्त बनता है , पर हृदयमे अधर्मकामरत  रहता  है , कामवश  द्वेष  करता है  वह  भी  निश्चित  कुसंग है।

जो बड़ा  सात्विक बनता  है , पर ह्रदय में  संतोंकी  दोष  देखता  है  वह अतिदुष्ट  दुःसंग है।

पर  सबसे  मुख्य  दुःसंग  अपना ही काम है , अपनी ही  सकमता  है।  इसे  समूल त्याग  देनेसे  ही  दुःसंगता  त्यागी जाती है।  उस काम -कल्पनाको  जो  नर त्यागता है , उसके लिए  संसार सुख स्वरुप होता है।

उस काम -कल्पना  को  त्यागनेका  मुख्य  साधन  केवल  सत्संग है।  संतोंके  श्रीचरणोंको  वंदन करनेसे  काम मारा  जाता है।

सत्संगके  बिना  जो साधन है , वह साधकोंको  बांधनेवाला  कठिन  बंधन है।  सत्संग के बिना जो त्याग है , वह केवल पाखंड है। 

शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

परमात्मा का दास बनो और नरदेह को समझो

गृहस्थाश्रममे  रहकर भी जिसका  चित्त प्रभुके  रंग में  रंग गया  और  इस  कारण  जिसकी  गृहासक्ति  छूट गयी , उसे  गृहस्थाश्रम  में  भी  भगवत्प्राप्ति  होती  है  और  निजसम्बन्धमे  ही सारी  सुख  संपत्ति  मिल जाती  है। 

जीव  और  परमात्मा  दोनों एक है।  इस बात को  जान लेना  ही ज्ञान  है। वह  ऐक्य  लाभकर  परमात्म सुख  भोगना  सम्यक विज्ञानं है। 

मै  ही  देव  हूँ , मै  ही  भक्त  हूँ , पूजाकी  सामग्री  भी  मै  ही हूँ , मै  ही  अपनी  पूजा  करता  हूँ  यह  अभेद -उपासना का  एक रूप है। 

सहज अनुकम्पा से  प्रनिओं  के साथ  अन्न , वस्त्र , दान , मान  इत्यादि से  प्रिय आचरण  करना  चाहिए।  यही  सबका  स्वधर्म  है। 

पिता स्वयमेब  नारायण  है।  माता  प्रत्यक्ष  लक्ष्मी  है। ऐसे  भावसे  जो भजन  करता है , वाही सुपुत्र है। 

बहते पानी पर  चाहे  जितने लकीरें  खींचो  एक भी लकीर न खिंचेगी , वैसे  ही  सत्त्वशुद्धि  के  बिना  आत्मज्ञानकी  एक  किरण प्रकट न होगी। 

धन्य  है  नरदेह का मिलना , धन्य है   साधुओं का  सत्संग , धन्य है  व  भक्त जो भगवत्भक्ति में  रंग गए। 

वैष्ण्वोंको  जो एक जाती  मानता  है , शालग्राम को जो एक पाषाण  समझता  है , सद्गुरुको एक मनुष्य  मानता  है , उसने कुछ न समझा। 

जो निज सत्ता  छोड़कर पराधीन में  जा फंसा , उसे  स्वप्नमें  भी सुखकी वार्ता  नहीं  मिलती। 

जो धन के लोभ मे  फंसा हुआ है  , उसे कल्पनान्त  मे  भी मुक्ति  नहीं  मिल सकती।  जो  सर्वदा  स्त्री -कामी  है , उसे  परमार्थ  या  आत्मबोध  नहीं  मिल सकता।

जब  सूर्यनारायण  प्राची दिशा मे  आते है  तब  तारें  अस्त  हो जाते है। वैसे  ही  भक्तिके  प्रबोधकाल मे  कामादिकों की  होली हो जाती है। 

सत्य  के सामान कोई तप  नहीं  होती है  , सत्यके  समान  कोई जप नहीं है। सत्यसे सद्रूप प्राप्त  होता है।  सत्यसे साधक  निष्पाप  होते है। 

वाणीमे  चाहे  कोई सबसे श्रेष्ठ क्यों न हो , वह यदि  हरीचरणो  मे  विमुख है  तो  उससे वह चांडाल श्रेष्ठ है  जो प्रतिदिन  भगवत भजन करता है। 

अंतःशुद्धिका  मुख्य  साधन हरी कीर्तन  है।  नाम के समान  और कोई साधन ही नहीं। 

भक्त जहाँ रहता  है , वहां  सभी प्रकार  दिशाएं  सुखमय  हो जाती है। वह जहाँ  खड़ा होता है , वहां सुखसे महा सुख आकर रहता है। 

अभिमान  का सर्वथा  त्याग ही त्याग की मुख्य लक्षण  है।  

सम्पूर्ण  अभिमान को त्याग कर  प्रभुकी शरण मे  जानेसे तुम जन्म-मरण  आदिके  द्वन्द्से  तर जाओगे। 

जो  हृदयस्थ है  उसकी शरण लो। 

प्रभुकी प्राप्ति मे  सबसे बड़ा बाधक है  अभिमान। 

प्रभुकी शरणमे जानेसे  प्रभुका  सारा बल प्राप्त हो जाता है, सारा भवभय  भाग जाता  है। कलिकाल  काम्पने  लगता है। 

समर्पण का  सरल उपाय है नाम स्मरण।  नामस्मरणसे  पाप भस्म  होते है। 

सकाम  नाम स्मरण करनेसे  व  नाम जो इच्छा  हो  वह  पूरी कर देता है।  निष्काम  नामस्मरण  करनेसे  वह नाम  पापको  भस्म  कर देता है। 

मनके श्रीकृष्णार्पण  होनेसे  भक्ति उल्लसित  होती है। 

अष्ट  महासिद्धियां  भक्तके चरणोमे  लोटा करती है  , वह उनकी और  देखता तक नहीं। 

जिस  भक्तको  प्रभुकी भक्ति प्राप्त हो ,उसके  सभी  व्यापर भगवत  आकार हो  जाते है। 

भक्त  जिस और रहता है , वह दिशा  श्रीकृष्ण  बन जाती है।  वह जब भोजन करने बैठता  है  तब  उसकेलिए  हरी ही षडरस  हो जाते है  . उसे जल पिलानेके  लिए  प्रभु ही जल बन जाते है। 

जब भक्त  पैदल  चलता  है  तो  शांति पद-पद पर उसके लिए  मृदु पादासन बिछाती  और उसकी  आरती  उतारती है।