गृहस्थाश्रममे रहकर भी जिसका चित्त प्रभुके रंग में रंग गया और इस कारण जिसकी गृहासक्ति छूट गयी , उसे गृहस्थाश्रम में भी भगवत्प्राप्ति होती है और निजसम्बन्धमे ही सारी सुख संपत्ति मिल जाती है।
जीव और परमात्मा दोनों एक है। इस बात को जान लेना ही ज्ञान है। वह ऐक्य लाभकर परमात्म सुख भोगना सम्यक विज्ञानं है।
मै ही देव हूँ , मै ही भक्त हूँ , पूजाकी सामग्री भी मै ही हूँ , मै ही अपनी पूजा करता हूँ यह अभेद -उपासना का एक रूप है।
सहज अनुकम्पा से प्रनिओं के साथ अन्न , वस्त्र , दान , मान इत्यादि से प्रिय आचरण करना चाहिए। यही सबका स्वधर्म है।
पिता स्वयमेब नारायण है। माता प्रत्यक्ष लक्ष्मी है। ऐसे भावसे जो भजन करता है , वाही सुपुत्र है।
बहते पानी पर चाहे जितने लकीरें खींचो एक भी लकीर न खिंचेगी , वैसे ही सत्त्वशुद्धि के बिना आत्मज्ञानकी एक किरण प्रकट न होगी।
धन्य है नरदेह का मिलना , धन्य है साधुओं का सत्संग , धन्य है व भक्त जो भगवत्भक्ति में रंग गए।
वैष्ण्वोंको जो एक जाती मानता है , शालग्राम को जो एक पाषाण समझता है , सद्गुरुको एक मनुष्य मानता है , उसने कुछ न समझा।
जो निज सत्ता छोड़कर पराधीन में जा फंसा , उसे स्वप्नमें भी सुखकी वार्ता नहीं मिलती।
जो धन के लोभ मे फंसा हुआ है , उसे कल्पनान्त मे भी मुक्ति नहीं मिल सकती। जो सर्वदा स्त्री -कामी है , उसे परमार्थ या आत्मबोध नहीं मिल सकता।
जब सूर्यनारायण प्राची दिशा मे आते है तब तारें अस्त हो जाते है। वैसे ही भक्तिके प्रबोधकाल मे कामादिकों की होली हो जाती है।
सत्य के सामान कोई तप नहीं होती है , सत्यके समान कोई जप नहीं है। सत्यसे सद्रूप प्राप्त होता है। सत्यसे साधक निष्पाप होते है।
वाणीमे चाहे कोई सबसे श्रेष्ठ क्यों न हो , वह यदि हरीचरणो मे विमुख है तो उससे वह चांडाल श्रेष्ठ है जो प्रतिदिन भगवत भजन करता है।
अंतःशुद्धिका मुख्य साधन हरी कीर्तन है। नाम के समान और कोई साधन ही नहीं।
भक्त जहाँ रहता है , वहां सभी प्रकार दिशाएं सुखमय हो जाती है। वह जहाँ खड़ा होता है , वहां सुखसे महा सुख आकर रहता है।
अभिमान का सर्वथा त्याग ही त्याग की मुख्य लक्षण है।
सम्पूर्ण अभिमान को त्याग कर प्रभुकी शरण मे जानेसे तुम जन्म-मरण आदिके द्वन्द्से तर जाओगे।
जो हृदयस्थ है उसकी शरण लो।
प्रभुकी प्राप्ति मे सबसे बड़ा बाधक है अभिमान।
प्रभुकी शरणमे जानेसे प्रभुका सारा बल प्राप्त हो जाता है, सारा भवभय भाग जाता है। कलिकाल काम्पने लगता है।
समर्पण का सरल उपाय है नाम स्मरण। नामस्मरणसे पाप भस्म होते है।
सकाम नाम स्मरण करनेसे व नाम जो इच्छा हो वह पूरी कर देता है। निष्काम नामस्मरण करनेसे वह नाम पापको भस्म कर देता है।
मनके श्रीकृष्णार्पण होनेसे भक्ति उल्लसित होती है।
अष्ट महासिद्धियां भक्तके चरणोमे लोटा करती है , वह उनकी और देखता तक नहीं।
जिस भक्तको प्रभुकी भक्ति प्राप्त हो ,उसके सभी व्यापर भगवत आकार हो जाते है।
भक्त जिस और रहता है , वह दिशा श्रीकृष्ण बन जाती है। वह जब भोजन करने बैठता है तब उसकेलिए हरी ही षडरस हो जाते है . उसे जल पिलानेके लिए प्रभु ही जल बन जाते है।
जब भक्त पैदल चलता है तो शांति पद-पद पर उसके लिए मृदु पादासन बिछाती और उसकी आरती उतारती है।
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